कृत्रिम परिवेशी निषेचन (आईवीएफ (IVF)) वह प्रक्रिया है जिसमें गर्भाशय से बाहर, अर्थात इन विट्रो यानी कृत्रिम परिवेश में, शुक्राणुओं द्वारा अंड कोशिकाओं का निषेचन किया जाता है। जब सहायता-प्राप्त प्रजनन तकनीक की अन्य पद्धतियां असफल हो जाती हैं, तो आईवीएफ़ (IVF) बंध्यता का एक प्रमुख उपचार होता है। इस प्रक्रिया में डिम्बक्षरण प्रक्रिया को हार्मोन द्वारा नियंत्रित करते हुए स्त्री की डिम्बग्रंथि से डिम्ब (अंडाणु) निकाल कर एक तरल माध्यम में शुक्राणुओं द्वारा उनका निषेचन करवाया जाता है। इसके बाद सफल गर्भाधान को स्थापित करने के उद्देश्य से इस निषेचित अंडाणु (ज़ाइगोट) को रोगी के गर्भाशय में स्थानांतरित कर दिया जाता है। प्रथम सफल ‘’टेस्ट ट्यूब शिशु’’, लुइस ब्राउन का जन्म 1978 में हुआ था। उससे पहले ऑस्ट्रलियन फ़ॉक्सटन स्कूल के शोधकर्ताओं ने 1973 में एक अस्थायी जैव-रासायनिक गर्भाधान की और 1976 में स्टेप्टो और एडवर्ड्स ने एक बहिगर्भाशयिक गर्भाधान की घोषणा की थी।
लातिनी मूल के शब्द इन विट्रो, जिसका अर्थ कांच के भीतर होता है, का उपयोग इसलिए किया गया था क्योंकि जीवित प्राणी के ऊतकों का उस प्राणी के शरीर से बाहर संवर्धन करने के जो आरंभिक जीव वैज्ञानिक प्रयोग हुए थे, वे सारे प्रयोग कांच के बर्तनों, जैसे, बीकरों, परखनलियों, या पेट्री डिशेज़ में किए गए थे। आज कृत्रिम परिवेशी शब्द का उपयोग ऐसी किसी भी जीववैज्ञानिक प्रक्रिया के लिए किया जाता है जो उस जीव से बाहर की जाती है जिसके भीतर वह सामान्यतः घटती है।
यह इन वाइवो (in vivo) प्रक्रिया से अलग है, जिसमें ऊतक उस जीव के भीतर ही रहता है जिसमें वह सामान्यतः पाया जाता है। आईवीएफ़ (IVF) प्रक्रिया की मदद से जन्म लेने वाले बच्चों के लिए एक आम बोलचाल का शब्द है टेस्ट ट्यूब बेबी , जिसका कारण रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान की प्रयोगशालाओं में कांच या प्लास्टिक रेज़िन के बने नली के आकार के कंटेनर हैं, जिन्हें टेस्ट ट्यूब (परखनली) कहा जाता है। हालांकि कृत्रिम परिवेशी निषेचन आम तौर पर उथले कंटेनरों में किया जाता है जिन्हें पेट्री डिश कहते हैं। (पेट्री डिश भी प्लास्टिक रेज़िन की बनी हो सकती हैं।) हालांकि ऑटोलॉगस एंडोमेट्रियल कोकल्चर नामक आईवीएफ़ (IVF) पद्धति असल में कार्बनिक पदार्थों पर संपन्न की जाती है, लेकिन उसे भी कृत्रिम परिवेशी कहा जाता है। यह तब किया जाता है जब माता पिता बंध्यता की समस्या का सामना कर रहे हों या वे एक से अधिक शिशु चाहते हों.
संकेत
आईवीएफ़ (IVF) का उपयोग डिम्बवाही नलिका की समस्याओं के कारण स्त्रियों में होने वाली बंध्यता के उपचार के लिए किया जा सकता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में शरीर के भीतर (in vivo) निषेचन मुश्किल हो जाता है। यह विधि पुरुष बंध्यता में भी सहायक हो सकती है, जहां शुक्राणुओं की गुणवत्ता में खराबी हो. और ऐसे मामलों में इंट्रासाइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन (ICSI) का उपयोग किया जा सकता है, जहां एक शुक्राणु कोशिका को सीधे डिम्ब कोशिका में इंजेक्ट किया जाता है। यह विधि तब इस्तेमाल की जाती है जब शुक्राणुओं को डिम्ब में प्रवेश करने में समस्या होती है और इन स्थितियों में जीवन साथी या दानकर्ता के शुक्राणुओं का भी उपयाग किया जा सकता है। आईसीएसई (ICSI) का उपयोग तब भी किया जाता है जब शुक्राणुओं की संख्या बहुत कम हो. आईसीएसई (ICSI) की सफलता की दर आईवीएफ़ (IVF) निषेचन की सफलता की दर के बराबर होती है।
यह कहना आसान है कि आईवीएफ़ (IVF) की सफलता के लिए बस स्वस्थ अंडाणु, निषेचित करने वाले शुक्राणु और गर्भाधान करने वाले एक गर्भाशय की आवश्यकता होती है। लेकिन इस प्रक्रिया की उच्च लागत के कारण आम तौर पर आईवीएफ़ (IVF) का प्रयास अन्य सारे सस्ते विकल्पों के विफल होने के बाद ही किया जाता है।
यह डिम्ब दान या स्थानापन्न मातृत्व के लिए भी किया जा सकता है जहां डिम्ब प्रदान करने वाली महिला वह महिला नहीं होती जो गर्भावस्था की अवधि को पूर्ण करेगी. इसका अर्थ यह है कि आईवीएफ़ (IVF) का उपयोग उन महिलाओं के लिए किया जा सकता है जिनकी रजोनिवृत्ति हो चुकी है। दान की गई डिम्बाणुजनकोशिका एक क्रूसिबल में निषेचित की जा सकती है। यदि निषेचन सफल होता है, तो ज़ायगोट या निषेचनज को गर्भाशय में स्थानांतरित कर दिया जाता है, जिसके भीतर वह एक भ्रूण में विकसित हो जाता है।
आनुवांशिक विकारों की गैर-मौजूदगी की पुष्टि करने के लिए प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस (PGD) के साथ भी आईवीएफ़ (IVF) का उपयोग किया जा सकता है। एक ऐसा ही लेकिन और अधिक सामान्य परीक्षण विकसित किया गया है जिसका नाम है प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक हैप्लोटाइपिंग (PGH).
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